पद्मश्री प्रोफेसर श्याम शर्मा : एक संस्मरण, लखनऊ-1966

अपने आदरणीय जयकृष्ण अग्रवाल हमारे बीच एक ऐसे कलाविद हैं, जिन्होंने अपनी पीढ़ी से लेकर आजतक के कला जगत के अद्भुत संस्मरण संजो रखे हैं। विगत कुछ वर्षों से वह इन संस्मरणों को सोशल मीडिया पर साझा भी करते रहते हैं । जो मेरी समझ से समकालीन कला की अनमोल धरोहर हैं, इसी कड़ी में उन्होंने अपने छात्र रहे और वर्तमान में कला महाविद्यालय, पटना के भूतपूर्व प्राचार्य प्रो. श्याम शर्मा के छात्र जीवन की स्मृतियों को साझा किया है । मेरी राय में किसी भी छात्र के लिए जहाँ यह गौरव की बात है कि उम्र के आठवें दशक में उनके गुरु उनको इस रूप में याद करें, वहीँ गुरु के लिए भी यह उतना ही सुखद और गौरव का पल बन जाता है, अपनी आँखों के सामने अपने छात्र को एक सफल कलाकार के तौर पर पद्मश्री जैसे सम्मान से सम्मानित होते हुए देखते हुए। मेरा सौभाग्य कि मुझे इन दोनों महान विभूतियाँ का स्नेह और सान्निध्य मिला, श्याम शर्मा तो हमारे गुरु हैं ही। वर्ष १९८८-८९ में लखनऊ में रहने के दौरान आदरणीय जय सर से मिलने का अवसर मिला, तबसे आजतक यह रिश्ता कुछ इस कदर है कि आज भी समय समय पर उनका मार्गदर्शन मिलता रहता है। बहरहाल आगे की बातें जय सर के ही शब्दों में –

सुमन कुमार सिंह (मॉडरेटर)

Prof. Jaikrishna Agarwal

 

थोड़ा शर्मीला सा और मितभाषी एक छात्र मेरे पास आता है और प्रिंटमेकिंग में पोस्ट डिप्लोमा करने की इच्छा व्यक्त करता है। पहले तो मुझे कुछ अजीब सा लगा कि कमर्शियल आर्ट का डिप्लोमा करनेवाला यह छात्र प्रिंटमेकिंग में क्या काम कर पायेगा, मैंने कहा भी कि भाई प्रिंटमेकिगं इलस्ट्रेशन नहीं है किसी एडवरटाइजिंग एजेन्सी को ज्वाइन करना तुम्हारे लिये श्रेयस्कर होगा पर उसने तो अपने मन में प्रिंटमेकर बनने की ठान ली थी। आखिरकार उसने ग्राफिक कार्यशाला में अपना आसन जमा ही दिया। उन दिनों लखनऊ के कला महाविद्यालय में लीथोग्राफी की सुविधा तो पहले ही से थी किन्तु आचार्य सुधीर रंजन ख़ास्तगीर द्वारा प्रिंटमेकिंग के सृजनात्मक पक्ष को महत्व देते हुऐ इसे चित्रकला के साथ जोड़ कर एक वैकल्पिक माध्यम की तरह अपनाया गया। साथ ही इस विषय के लिये एक अलग प्रवक्ता के पद का सृजन भी किया गया। वास्तव में यह एक अच्छी पहल थी किन्तु चित्र कला के छायावाद, वाश पेन्टिंग की छत्रछाया में इसे पनपने में थोड़ी कठिनाई अवश्य हुई। सच कहा जाय तो एक प्रकार से प्रिंटमेकिंग का विरोध ही हुआ।

सन् 1963 में इस विषय के पहले अध्यापक के रूप में मुझे नियुक्त किया गया था। उस समय तक खास्तगीर साहब शान्तीनिकेतन जा चुके थे। और विरोध के रहते इस पद को ललित कला से हटाकर क्राफ्ट विभाग के अधीनस्थ कर दिया गया साथ ही मेरी अर्हताओं को ध्यान में रखते हुए मुझे स्टिललाइफ और स्केचिंग आदि सिखाने का कार्य भार सौंपा गया। उस समय मुझे लगा कि प्रिंटमेकिगं की भ्रूण में ही हत्या हो जायगी किन्तु अगले वर्ष ही विद्यालय में नेशनल डिप्लोमा लागू हो जाने से सृजनात्मक प्रिंटमेकिगं को अपना वांछित स्थान स्वतः मिल गया। नए ललित कला के पाठ्यक्रम में प्रिंटमेकिगं का एक विषय के रूप में सम्मिलित हो जाने के उपरांत भी इसके विरोध में कमी नहीं आई और बहुत समय तक साधनों के अभाव में वुडकट और लीनोकट तक ही सीमित रहना पड़ा। यही समय था जब वह शर्मीला सा छात्र प्रिंटमेकिंग में पोस्ट डिप्लोमा करने आया। मेरी समस्या यह थी कि मैटल प्लेट एचिंग जो एक महत्वपूर्ण माध्यम था उसका प्रशिक्षण मैं नहीं दे पा रहा था और मैंने उसे आगाह भी किया किन्तु मुझे आश्चर्य हुआ जब उस छात्र ने कहा सृजन तो सृजन होता है माध्यम कोई भी क्यों न हो।

वह छात्र कोई और नहीं स्वंय श्याम शर्मा ही था जिसने वुडकट से अपने सृजन की यात्रा आरम्भ की और वर्षों से निरंतर इसी विधा में सृजनरत रहते हुऐ अपने को एक सफल प्रिटमेकर के रूप में स्थापित कर लखनऊ के कला मंहाविद्यालय का मान बढाया। श्याम बहुत अधिक समय तक लखनऊ में नहीं रुक सका किन्तु कला महाविद्यालय में प्रिंट मेकिंग के शुरूआती दिनों में उनके और मनोहर लाल आदि जैसे कर्मठ छात्रों से इस विधा को अपनी जगह बनाने में बड़ी सहायता मिली।

सन् 1941 उत्तर प्रदेश में जन्मे श्याम शर्मा आज एक ख्यातिप्राप्त प्रिंटमेकर है। उन्होंने राजकीय कला एवं शिल्प महाविद्यालय, लखनऊ से 1966 में प्रशिक्षण प्राप्त कर पटना को अपनी सृजनस्थली बनाया और आज भी वहीं रहते हुऐ वुडकट माध्यम में नित नये प्रयोग कर रहे है और इस विधा को विस्तार देने में संलग्न। उनके कार्य अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शित होते रहे हैं और अनेक अवसरों पर उन्हें विभिन्न पुरस्कारों आदि से सम्मानित किया जा चुका है। पिछले वर्ष ही उन्हें भारत के राष्ट्रपति द्वारा पद्मश्री सम्मान से नवाज़ा गया जो हम सब के विशेष रूप से लखनऊ के कला मंहाविद्यालय के लिये बड़े गर्व की बात है।

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