प्रो. जयकृष्ण अग्रवाल जी उन वरिष्ठ कलाकारों में से हैं, जो लगभग नियमित तौर पर सोशल मिडिया पर सक्रिय रहते हैं। उनके लेखन का दायरा विस्तृत कहा जा सकता है। फोटोग्राफी, बागवानी जैसे विषयों से लेकर कला की दुनिया से जुड़े अनुभवों एवं संस्मरणों को सार्वजानिक तौर पर साझा करते रहते हैं। उनके संस्मरणों में अधिकतर में गुजरे ज़माने की भूली बिसरी बातों से नयी पीढ़ी को अवगत कराने का उपक्रम दिखता है। किन्तु इस बार यहाँ प्रस्तुत है चर्चा एक युवा कलाकार की….
लखनऊ कला महाविद्यालय से प्रशिक्षित एक युवा कलाकार ने मुझे अपनी कलाकृतियाँ देखने के लिये आमंत्रित किया। किराए के एक कमरे में वह रह रहा था जिसमें एक खाट के अलावा उसके चित्रों और कला सामग्री आदि ने सारी जगह घेर रखी थी। चित्रों से अधिक उसके रेखांकनों ने मुझे प्रभावित किया। जब मैने उससे रेखांकन को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाने का सुझाव दिया तो मुझे लगा कि वह स्वयं पसोपेश में है। उसे यही बताया गया था कि रेखांकन कैनवास के सामने टिक नहीं पाते। मैने उससे कहा कि जब मैंने प्रिंटमेकिंग शुरू की थी तो मुझे भी इसी समस्या का सामना करना पड़ा था। माध्यम का महत्व केवल अभिव्यक्ति की सुविधा तक ही सीमित है। जो कलाकार की सृजनात्मकता को विस्तार दे सके वही उसके लिये उचित माध्यम है।
वह युवा कलाकार कोई और नहीं, अपने रेखांकनों द्वारा अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाला कलाकार फणीन्द्र नाथ चतुर्वेदी ही था। फणीन्द्र की शिक्षा दीक्षा यद्यपि लखनऊ के कला महाविद्यालय में ही हुई थी किन्तु वह मेरा छात्र कभी नहीं रहा किन्तु कुछ संस्कारिक समानताएं थी जो हमें एक-दूसरे के निकट ले आईं । उसने मेरे घर के पास ही एक कमरा ले लिया और उसका अधिक समय हमारे साथ बीतने लगा। उसकी कला और कलाजगत को ले कर बहुत सी जिज्ञासाएं होती जो अधिकतर हमलोगों के बीच वार्ता का विषय हुआ करती थीं। कोई भी ड्राइंग पूर्ण हो जाने पर वह मुझे दिखाने ले आता। वह चाहता था कि मैं उसके कार्य के बारे में बात करूं किन्तु मुझे लगता था कि उसकी स्वतंत्र सोच और अभिव्यक्ति एक अलग दिशा में जा रही है और मेरा हस्तक्षेप उसके कार्य की मौलिकता में बाधक हो सकता है। मैं औपचारिक रूप से अपने सुझाव उसके उत्साह वर्धन तक ही सीमित रखता था।
फणीन्द्र उन दिनों एक कठिन दौर से गुजर रहा था। उसकी इच्छा शुरू से ही एक स्वतंत्र कलाकार बने रहने की थी और वह अपने पिता पर और अधिक आश्रित नहीं रहना चाहता था। लखनऊ यद्यपि फ्रीलांस कलाकारों के लिये उपयुक्त स्थान नहीं था फिर भी फणीन्द्र ने जीविका के संघर्ष से अपने सृजन को मुक्त रखा। सन् 2006 में मुझे भारत एवं कोरिया के कलाकारों की सामूहिक प्रदर्शनी सियोल ले जाने का अवसर मिला जिसमें फणीन्द्र की भागीदारी, उसके बड़े बड़े रेखांकन बहुत सराहे गये। इससे फणीन्द्र के आत्म विश्वास को बड़ी दृढ़ता मिली और वह दिल्ली की ओर कूच कर गया।
पिछले लगभग पंद्रह वर्ष से वह एन.सी.आर में रहकर कर एक सफल कलाकार के रूप में सृजनरत है। वह अपने रेखांकनों द्वारा ही अपनी विशिष्ट पहचान बनाने में सफल हुआ है। इस बीच उसने अपनी कार्य शैली में अनेक प्रयोगात्मक कार्य करते रह कर अपने सृजन को विस्तार दिया जो वास्तव में उसके दृढंसंकल्प का ही परिणाम है। यदि यह कहा जाय कि फणीन्द्र ने तितलियों के परों पर उड़ान भर कर दिखा दी तो अतिशयोक्ति नहीं होगी …