आज अनायास मुझे बिमला दीदी का स्मरण हो आया। जिन दिनों मैं लखनऊ के कला महाविद्यालय में छात्र रहा था, बिमला जी 1959 में फाइन आर्ट का डिप्लोमा पूर्ण कर स्कल्पचर में श्री खास्तगीर और श्री पवांर के निर्देशन में पोस्ट डिप्लोमा कर रही थीं।
लखनऊ के एक सम्पन्न और प्रभावशाली कायस्थ परिवार में जन्मी बिमला सक्सेना स्वयं एक अत्यंत शांत, सहज और आकर्षक छात्रा थीं। सदैव हलके रंगों के सलवार कुर्ते और चुनरी डाले जब आंखे झुकाए हुए वह आती तो बरबस उनकी तरफ ध्यान जाना स्वाभाविक ही था किन्तु उन झुकी हुई आंखों से आंखें मिलाना आसान नहीं था। वास्तव में बिमला जी मुझसे उम्र में थोड़ी बड़ी और काफी सीनियर छात्रा भी थीं। बहुत कुछ मेरी एक बहन जैसी दिखती थी। मैं अक्सर स्कल्पचर विभाग में उनसे मिलने चला जाता और वह वही घिसीपिटी बात कि मैं शैतानी कम किया करूं दोहरा देतीं। कालेज के प्रधानाचार्य श्री खास्तगीर की पारखी नज़र से बिमला जी छिप न सकीं। खास्तगीर साहब ने उन्हें शांतिनिकेतन जाकर सेरामिक में विशेष अध्ययन करने की सलाह दी।
वास्तव में खास्तगीर साहब ने बिमला जी को कालेज में अध्यापक नियुक्त करने का मन बना लिया था। वह कालेज में मूलचूल परिवर्तन करने की ओर अग्रसर थे। विद्यालय में पाटरी का प्रशिक्षण तो दिया जाता था किन्तु ग्लेज़्ड पाटरी की जानकारी उन दिनों सीमित ही थी इसके लिये उन्होंने बिमला जी को आगे बढ़ाया। अंततः बिमला जी ने शांतिनिकेतन से सेरामिक का विशेष अध्ययन प्राप्त कर लखनऊ कला महाविद्यालय के सेरामिक विभाग का कार्यभार सम्हाला। प्रारम्भिक पाटरी विभाग का विस्तार कर सम्पूर्ण सुविधाओं से युक्त वर्तमान सेरामिक विभाग में इस विधा को सृजनात्मक कला के रूप में विकसित करने का श्रेय उन्हें ही जाता है।
सन् 1960 में मेरा शांतिनिकेतन जाना हुआ। बिमला जी उन दिनों वहीं थीं बस पौशाली अतिथि गृह में अपना सामान रखकर मैं उनसे मिलने शिल्पसदन चला गया। मुझे अनायास वहां देखकर वह थोड़ा आश्चर्य चकित अवश्य हुईं, थोड़ा संयत होकर जिस प्रसन्नता से वह मुझसे मिलीं मुझे लगा कि जैसे वह अपने किसी बिछुडे हुए सगे सम्बन्धी से मिल रही हों। वास्तव में वहां की बांगला भाषा, खानपान और व्यवहार को वह स्वीकार नहीं कर पाईं थीं। थोड़ी बहुत बांग्ला बोलना शुरू कर दी थी किन्तु लखनऊ की नज़ाकत और नफासत की आदी बिमला जी ने अपने आप को काम में इतना व्यस्त कर दिया था कि जब वह मेरे साथ मुझे शांतिनिकेतन की सैर कराने निकलीं तो उन्होंने कहा भी कि वह बहुत दिनों बाद घूमने निकलीं हैं। छात्रावास से सेरामिक कार्यशाला के बीच के रास्ते को छोड़ कर वह सभी रास्ते भूल चुकी थीं। वास्तव में यही वह रास्ता था जो अंततः उन्हें उनके गन्तव्य तक ले गया।
आवरण चित्र: कुमारी विमला सक्सेना , मूर्तिकला विभाग (कला महाविद्यालय, लखनऊ ) में पोस्ट डिप्लोमा करते समय पोर्ट्रेट स्टडी करते हुए, सन 1959