क्या किसी कलाकृति को जानने-समझने के लिए उससे जुड़े सन्दर्भ की व्याख्या आवश्यक है ? या किसी भी कलाकृति को सन्दर्भ सहित किसी शाब्दिक व्याख्या की जरुरत नहीं है ? इन्हीं चंद सवालों पर केन्द्रित है वरिष्ठ कला समीक्षक/कला इतिहासकार जोनी एमएल के सारगर्भित फेसबुक पोस्ट का हिंदी अनुवाद I –संपादक
जोनी एमएल
आज सुबह-सुबह स्क्रॉल करते हुए मेरी नज़र एक ऐसे रील पर पड़ी जो विवादास्पद आध्यात्मिक गुरु ओशो रजनीश के किसी सत्र का एक छोटा सा अंश था, जिसमें वे भगवान और विश्वास पर बोल रहे थे। उन्होंने कहा, “एक आस्थावान व्यक्ति अंधा होता है। यदि आप किसी चीज़ को जानते हैं तो आप उसे जानते हैं, न कि उस पर विश्वास करते हैं। यदि आप भगवान में विश्वास करते हैं तो भगवान नहीं हैं। लेकिन यदि आप भगवान को जानते हैं, तभी भगवान हैं।”
कला भगवान को जानने का एक तरीका है। आप कला को महसूस कर सकते हैं और जान सकते हैं, पर आप कला में विश्वास नहीं कर सकते। अगर कोई गैलरी संचालक या डीलर आपसे कहे कि वह अमुक कलाकार पर विश्वास करता/करती है, तो निश्चय जानिये, वह हर चीज़ के प्रति अँधा/अंधी हो चूका/चूकी है। क्योंकि आप किसी व्यक्ति पर विश्वास कर सकते हैं, पर उसकी रचनात्मकता या उसकी रचना पर नहीं — आप केवल उसे जान सकते हैं। और जब आप कला को जानते हैं, तो आप उसके प्रति अंधे नहीं रहते। इसलिए कला को प्रोत्साहित करने वालों और खरीदारों को उस कला को जानने की कोशिश करनी चाहिए जिसे वे बढ़ावा देना या खरीदना चाहते हैं।
हाल के समय में, कला-जगत के लोग कला को ‘जानने’ का प्रयास नहीं करते, बल्कि वे उसके चारों ओर चक्कर काटते रहते हैं ताकि वे कभी उसके मूल तक न पहुँचें। ऐसे में जब आप किसी कला-कृति की बात करते हैं, तो आप उस प्रसंग या संदर्भ की बात करते हैं जिसने उसे उत्पन्न किया। जैसा कि एक युवा दीर्घा संचालक ने सही कहा, ‘आप एक ऐसी कलाकृति देखते हैं जिसमें बहुत सारा कपड़ा और कढ़ाई होती है, और जब आप इसके बारे में पूछते हैं, तो कलाकार कहता है कि यह उसके बचपन की यादों से निकला है। अब आप अफ़ग़ानिस्तान (या किसी अन्य देश) के किसी कलाकार की कोई कृति देखते हैं, वहां भी वही कपड़ा और सिलाई — और उसका भी जवाब कुछ ऐसा ही है I तो ऐसे में यह बातें सिर्फ कहानी है या महज बकवास I
किसी कलाकार और उसकी कला-कृति के साथ लम्बा समय बिताना ही उसे जानने-समझने का एकमात्र तरीका है। लेकिन अगर आप केवल उस पर विश्वास करना चाहते हैं, तो एक कैटलॉग या इंस्टाग्राम पोस्ट ही काफ़ी है। दरअसल विश्वास करना एक ही कल्पना को साझा करना है — जैसा कि युवाल नोआ हरारी किसी अन्य संदर्भ में कहते हैं। इंस्टाग्राम पर आपको एक कल्पना मिलती है — प्रस्तुत करने की कल्पना। वहीँ जब आप कलाकार को ‘जानने’ की कोशिश करते हैं, तो आपको कला-कृति के प्रसंग की बहुत सारी कहानियाँ सुनने को मिलती हैं — पर इसमें से कुछ भी उसकी कला के बारे में नहीं होता है।
एडी फ्रैंकेल
ब्रिटिश कला समीक्षक एडी फ्रैंकेल इसे ‘संदर्भ का अत्याचार’ कहते हैं। कलाकार मेघा जोशी ने मुझे समकालीन कला पर फ्रैंकेल के विचार भेजे और मैं उनके विचारों से बहुत प्रभावित हुआ। किसी कलाकृति की व्याख्या के क्रम में जब आप केवल उन संदर्भ या परिस्थितियों की बात करते हैं, जिसकी वजह से यह कृति सामने आई, और उसी के आधार पर उसका विश्लेषण करते हैं, तो आप उसकी कला की नहीं बल्कि सिर्फ उन सन्दर्भों को व्याख्यायित कर रहे होते हैं I और जब संदर्भ हर चीज़ पर हावी हो जाता है और कलाकार उस संदर्भ को एक आवरण और विशेषाधिकार के रूप में उपयोग करते हैं, तब खराब कला को भी खराब नहीं कहा जा सकता क्योंकि संदर्भ के भीतर वह अच्छी और प्रासंगिक ही लगती है।
फ्रैंकेल के अनुसार, ‘संदर्भ का यह अत्याचार’ समीक्षक को चाहते हुए भी किसी कटखने पिल्ले को दुत्कारने लायक भी नहीं छोड़ता। क्योंकि ऐसे में अगर आप किसी पिल्ले को दुत्कारते भी हैं तो पशु-अधिकार कार्यकर्ता आप पर टूट पड़ेंगे; वे यह नहीं सोचते कि वह पिल्ला पागल भी हो सकता है। सारनाथ बनर्जी एक ग्राफ़िक नावेल लेखक हैं। उनके ग्राफ़िक चित्रों को अंतरराष्ट्रीय मंच पर महान कलाकृतियों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। मैंने आर्ट स्पीगेलमैन, मर्जान सतरेपी, जो सैको, मलिक सज्जाद जैसे कई ग्राफ़िक नावेल लेखकों के उत्कृष्ट कार्य देखे हैं। लेकिन उन्हें तो किसी प्रदर्शनी में कलाकार के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जाता। यहाँ तक कि बिस्वजीत घोष या ओरिजित सेन को भी नहीं। अलबत्ता बनर्जी को एक विशेष संदर्भ में प्रस्तुत किया जाता है। फ्रैंकेल कहते हैं — कभी-कभी हमें पिल्लों को दुत्कारने की ज़रूरत होती है।
मैंने कहीं पढ़ा कि आम आदमी पार्टी की पंजाब सरकार धार्मिक अपमान के लिए मृत्युदंड की माँग कर रही है और इतना ही नहीं इससे भी आगे बढ़कर दक्षिणपंथी धार्मिक विचारधारा वाले केंद्र सरकार की आलोचना कर रही है कि उसने अब तक ऐसा क्यों नहीं किया। धार्मिक झुकाव वाले पंजाब जैसे राज्य में यह एक तरह की बगैर भली-भांति विचार किये की गई पहल है, जो आगे चलकर राज्य की धर्मनिरपेक्ष राजनीति को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकती है। यह तो वही बात हुयी कि जब कोई आपको बैठने के लिए कहता है, तप आप लेटने को तैयार हो जाते हैं I
मुझे 2015 की एक घटना याद आती है जब मैंने पुणे बिएनाले के दूसरे संस्करण का क्यूरेशन किया था। बजरंग दल के कार्यकर्ता आयोजन स्थल पर आए और एक पेंटिंग को हटाने की माँग की जिसका शीर्षक था ‘सीताफल’। क्योंकि उन्होंने इस सीताफल को ‘सीता और फल’ के रूप में पढ़ा और कहा कि यह धर्म का अपमान है। पुलिस आई और मुझे थाने ले गई। इधर तुरंत उस कृति को समेटकर दिल्ली भेज दिया गया क्योंकि वह दिल्ली-स्थित कलाकार जोड़ी मनील-रोहित की थी। हालाँकि कुछ घंटों के बाद पुलिस ने मुझे छोड़ दिया। फिर बिएनाले के आयोजक आए। उनमें से एक ने दीवारों से कलाकृतियाँ उतारनी शुरू कर दीं, यह कहते हुए कि यह एक पूर्व-सावधानी है क्योंकि उपद्रवी फिर से आ सकते हैं। ऐसे में मज़े की बात यह रही कि जो कृतियाँ हटाई गईं उनमें माँ-बच्चे की छवियाँ, रसोई में काम करती महिला आदि जैसी कलाकृतियाँ भी थीं।
तो ऐसे में सच कहें तो, संदर्भ का अत्याचार और कुछ तो संदर्भ से भी ज़्यादा संदर्भित हो जाते हैं। अत्यधिक संदर्भात्मकता अंततः एक कलाकृति को नष्ट कर देती है क्योंकि ऐसे में लोग कला नहीं, केवल संदर्भ को देखते हैं। इसीलिए एक बार जब मैंने कुछ ऐसी कृतियाँ देखीं जिन्हें देखने से ज़्यादा पढ़ने की ज़रूरत थी, तो मैंने कहा, बेहतर होगा कि आप मुझे केवल कीवर्ड और संदर्भ सूची दे दें। मैं गूगल सर्च करके या किसी पुस्तकालय में जाकर इससे जुड़े सन्दर्भ की विस्तृत जानकारी जुटा लूँगा I क्योंकि ऐसा करना इन कलाकृतियों को देखने से ज्यादा बेहतर है I