फ़ोयर की ओर जाने वाली सीढ़ियों पर खड़े होकर मैंने उन युवाओं को देखा जो लाउंज में वरिष्ठ कलाकार द्वारा चित्र रचना शुरू करने की प्रतीक्षा उत्साहपूर्वक कर रहे थे। यहाँ एक लाइव पेंटिंग सत्र चल रहा था और दर्शकों में ज्यादातर युवा कलाकार और स्थानीय कला महाविद्यालयों के छात्र थे। नई विश्व व्यवस्था और उसके परिणामी रीति-रिवाजों के अनुसार, उन्होंने अपने मोबाइल कैमरे के लेंस के माध्यम से कलाकार और उसके कैनवास को देखा। उनमें से कुछ उस कलाकार की तस्वीरें खींच रहे थे, जो कैनवास पर चित्र रचने में तल्लीन थे। कुछ अन्य यह सोचकर इस सत्र की वीडियो रिकॉर्डिंग कर रहे थे कि इसके माध्यम से वे बाद में इस प्रक्रिया की बारीकियों का अध्ययन कर सकते हैं। एक बार मोबाइल की मध्यस्थता वाली यह रस्म जब पूरी हो चुकी, फिर उन सभी ने अपने आपको चित्र रचना प्रक्रिया पर केंद्रित कर लिया।
मैं सोचने लगा, इस तरह के लाइव सत्र युवा कला छात्रों पर क्या प्रभाव डालते हैं? क्या यह किसी संगीतकार या नर्तक द्वारा दर्शकों के सामने प्रस्तुति देने जैसा था? जाहिर है अपनी कला का प्रदर्शन करने वाले ये नर्तक या संगीतकार अपने प्रदर्शन की बारीकियों और तकनीकी कुशलता की ओर दर्शकों का ध्यान आकर्षित करने से पहले दर्शकों को भावनात्मक स्तर पर प्रभावित करते हैं। यहाँ इन संगीतकारों या नर्तकों के छात्र अपने गुरुओं को देखकर सीखते भी हैं। लेकिन जहां तक कला के छात्रों का सवाल है, कक्षा में अपने शिक्षकों के अलावा उन्हें अन्य कलाकारों द्वारा पेंटिंग या मूर्तियां बनाते हुए देखने का मौका नहीं मिलता है। जाहिर है यहाँ चित्र रचने की यह कला या तकनीक किसी दूसरे के लिए अपरिचित सा रह जाता है, यानी कहा जा सकता है कि कलाकार अपनी कलाकृति की रचना के क्रम में अपने स्टूडियो की गोपनीयता के आवरण में रहता है। ऐसी स्थिति में कला का काम समाप्त होने के बाद ही कलाप्रेमियों को किसी कलाकृति को देखने की अनुमति होती है। यह एक प्रकार का नियम सा बन चूका है।
हालाँकि, कुछ इसके अपवाद भी हैं। ऐसे कई कलाकार हैं जो अपनी रचना प्रक्रिया के दौरान दूसरों की संगति में भी सहज रहते हैं। यानी जब कोई देख रहा हो या बात कर रहा हो तब भी वे पेंटिंग कर सकते हैं या करते रहते हैं। उनके अंदर अपनी शैली या तकनीक की नकल या अनुकरण का कोई डर नहीं रहता हैं। लेकिन कई अन्य लोग, चाहे वे नकलचियों से डरते हों या नहीं, अपनी रचना प्रक्रिया के दौरान अपनी निजी दुनिया में ज्यादा सहज महसूस करते हैं। यहां तक कि अगर कभी-कभार आगंतुकों को अपने स्टूडियो में बुलाते भी हैं तो, यह कलाकृति रचने की प्रक्रिया दिखाने के लिए नहीं बल्कि कलाकृति या कलाकृतियों को दिखाने के लिए होता है। कभी-कभी, ये मितभाषी कलाकार अपने कलाकृति निर्माण की प्रक्रिया को उस स्थिति में सबके सामने लाते भी हैं, लेकिन यह सब तब होता है जब पारस्परिक किसी वृत्तचित्र निर्माता द्वारा उनके वृत्तचित्र के लिए वीडियो दस्तावेज तैयार किया जाता है या जब वे किसी कला शिविर में होते हैं। जो कलाकार नियमित रूप से कला शिविरों या कार्यशालाओं में आते-जाते रहते हैं, उनके लिए कलाकृति की रचना के समय दर्शकों की उपस्थिति कोई विशेष अवरोध जैसा नहीं होता। कभी-कभी युवा कलाकारों और कला छात्रों के ज्ञानवर्द्धन के लिए भी विशेष कला शिविर आयोजित किए जाते हैं। ऐसे में जो कलाकार दर्शकों के सामने काम नहीं करना चाहते वे इस कैंप में नहीं जाते। वैसे आजकल कैंप का मतलब है दर्शनीय स्थलों की आनंददायक यात्राएं। ऐसी स्थिति में होता यह है कि आयोजकों को पेंटिंग तभी मिल पाते हैं जब कलाकार वापस अपने स्टूडियो में लौट आता है।
एक बात तो तय है कि किसी कलाकार को रचना में संलग्न देखने की रूचि दर्शकों में कभी कम नहीं होती। यह वास्तव में कला सृजन का जादू है। दर्शकों की भीड़ के बीच काम करने वाले ये कलाकार किसी सार्वजनिक कलाकार या सड़क पर मज़मा जमाये जादूगर अथवा सड़क पर चित्र रचने वाले किसी कलाकार की तरह होते हैं। वे जनता के प्रति जागरूक तो हैं ही, साथ ही यह भी जानते हैं कि जनता के जुड़ाव को कैसे कम होने से बचाया जाए। अपने प्रदर्शन के दौरान उपयोग में आनेवाली सामग्रियों को वे इस खास अदा से अपने थैले से निकालते हैं मानो वे कोई जादूगर हों या सड़क पर अपनी दुकान लगानेवाला कोई दुकानदार। जैसे ही वे अपना काम शुरू करते हैं तो एक छोटी सी भीड़ इकट्ठा हो जाती है और होते-होते वह एक बड़ी भीड़ में तब्दील हो जाती है। कलाकार द्वारा खींची जाने वाली प्रत्येक रेखा और ब्रश स्ट्रोक्स पर इन दर्शकों की चौकस निगाहें बारीकी से नज़र रखती हैं। जैसे-जैसे कैनवास पर रेखाएं अलग-अलग आकार लेती रहती हैं, दर्शकों की निगाहें उसी दिशा में मुड़ती चली जाती हैं। कलाकारों द्वारा कलाकृति रचे जाने की इस प्रक्रिया पर दर्शकों के अंदर एक खास तरह की उत्सुकता बनी रहती है। मैंने लोगों को काम ख़त्म होने का इंतज़ार करते देखा है। यह सिर्फ उस भाग्यशाली व्यक्ति के बारे में नहीं है जिसे कलाकार ने बल्कि दर्शकों ने भी मॉडल के रूप में चुना है। वहां उपस्थित सभी लोग उस चित्र को पूरा हुआ देखना चाहते हैं और जो उन्होंने अभी-अभी देखा है उसके बारे में अच्छा महसूस करना चाहते हैं। ऐसे में अक्सर भीड़ में से हर एक को लगता है कि अगले मॉडल के रूप में उसका ही चयन होना चाहिए। किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी अगर कोई कलाकार ठीक उसी तरह एक परिदृश्य (लैंडस्केप) बना रहा हो, जैसे 19वीं सदी के अंत में पेरिस में बारबिज़ॉं स्कूल के चित्रकार बनाया करते थे या इन दिनों शिबू नटेसन बना रहे हैं।
स्टूडियो कलाकारों के लिए अत्यधिक सुरक्षित-संरक्षित स्थान हैं। कलाकार यहाँ उन लौकिक दिग्गजों की तरह हैं जो अपने सिंहासन पर बैठे हुए हैं। लेकिन इतिहास में कुछ कलाकार ऐसे भी हैं जिन्होंने अपनी कला के सार्वजानिक प्रदर्शन को प्राथमिकता दी। क्योंकि कुछ कलाकार स्वभाव से प्रदर्शनकारी होते हैं और जैसा कि मैंने पहले उल्लेख किया है, वे किसी भी समय अपनी क्षमता दिखाने के लिए तैयार रहते हैं। पाब्लो पिकासो, जैक्सन पोलक, यवेस क्लेन और उनके जैसे कलाकारों ने सार्वजनिक तौर पर चित्र सृजन किया। आम तौर पर, कला शिक्षक छात्रों या अन्य लोगों के सामने पेंटिंग करने में सहज होते हैं। अभिलेखागार में उपलब्ध तस्वीरों में नंदलाल बोस, बिनोद बिहारी मुखर्जी, राम किंकर बैज, एन.एस.बेंद्रे, प्रभाकर कोलटे जैसे कलाकार छात्रों के सामने उत्साहपूर्वक कलाकृतियां रचते हुए दिखाई देते हैं। शायद यही एक कारण है कि उनके इतने सारे छात्र अपनी कलात्मक शैलियों में उनकी ही तरह विकसित हुए। वे किसी खास स्कूल, खास शैली और दर्शन का हिस्सा बन जाते हैं। आप पूछ सकते हैं कि क्या यह छात्रों के विकास के लिए सही है। शैली की प्रतिकृति बनाना अतीत की बात है और कलाकारों के गिल्ड के ख़त्म होने के साथ ही यह ख़त्म हो गया। आधुनिक और समकालीन कला, कलाकार से विशिष्टता और प्रयोगात्मक शैली की मांग करती है। इसलिए किसी एक कलाकार या उसकी शैली का अनुसरण करना अब किसी के अभीष्ट भी नहीं रहा।
कला संस्थानों में कला सिखाने का तरीका भी बदल गया है। पहले, जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं, कक्षा में छात्रों के सामने चित्र बनाकर दिखाना कौशल और शैली सिखाने का प्रमुख तरीका था। आज, अधिकांश कलाकारों और कला शिक्षकों का मानना है कि कला सिखाई नहीं जा सकती, इसलिए छात्रों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाना चाहिए। कला शिक्षकों की भूमिका सिर्फ सुविधा उपलब्ध करा देने की होनी चाहिए। उन्हें उस साउंडिंग बोर्ड की तरह होना चाहिए जो छात्रों से अपनी रचना शैली के अनुकरण के बजाय, उनकी कला प्रतिभा को विकसित करने में सहायक हो। हालाँकि, यह देखा गया है कि जहाँ कला शिक्षक स्वयं चित्र बनाकर दिखा रहे हैं, वहाँ छात्रों को उनकी शैली की नकल के बजाय उनके काम करने के तरीकों का अनुकरण करने का मन होता है। वैसे भी कलागुरु/ शिक्षक की दिनचर्या का पालन अनुशासन के लिए हमेशा अच्छा होता है। यह भी देखा गया है कि जहां कला शिक्षक अपने हाथों से चित्र बनाने के बजाए सिर्फ जुबान चलाते रहते हैं, वहां उनके छात्र भी उसी का अनुसरण करते हैं, अंततः वे कलाकारों की जगह वैचारिक या अन्य प्रकार के उपदेशक बन कर रह जाते हैं।
कलाकारों को जनता से सराहना की जरूरत होती है, सामान्यतया कलाकार विशेष और सामान्य लोगों के बीच अंतर भी नहीं करते। कलाकार तब ज्यादा खुश होते हैं जब वे अपनी कलाकृति के माध्यम से दूसरों में जिज्ञासा पैदा कर पाते हैं। हालांकि कलाकार कभी-कभी बात करने में झिझकते हैं, लेकिन जब लोग उनकी कलाकृति के साथ समय बिताते हैं तो उन्हें आत्मिक संतुष्टि महसूस होती है। वहीँ कलाप्रेमी दर्शक यह देखना चाहते हैं कि वे कला के जादू, उसके अन्तर्निहित अर्थों को कितना समझ पाते हैं। ऐसे में जब वे ऐसा करने में असफल हो जाते हैं तो कला और कलाकृतियों से मुँह फेर लेते हैं। लेकिन जब एक कलाकार दर्शकों के सामने पेंटिंग का प्रदर्शन करता है तो दर्शक उत्साहित हो जाते हैं क्योंकि यह एक तरह से किसी अनजान देश में बिना किसी जीपीएस के खजाने की खोज जैसा है। यहाँ कलाकार स्वयं दर्शकों को कलाकृति के सृजन के अंतिम बिंदु तक ले जाता है और यह एक उत्साहवर्धक अनुभव बन जाता है।
– जोनी एमएल