वरिष्ठ कलाकार अजित दुबे भारतीय समकालीन कला जगत के सुपरिचित नामों में से एक हैं। एक छापा कलाकार और प्राध्यापक के तौर पर सक्रिय रहे अजित जी इन दिनों अजितानन्द के नाम से कला लेखन में भी अपना योगदान दे रहे हैं । आलेखन डॉट इन पर पहले भी उनके कला विषयक आलेख प्रकाशित होते रहे हैं। इस आलेख श्रृंखला में वे चर्चा कर रहे हैं कलाकृतियों को देखने और समझने में मददगार पक्षों और पहलुओं की। मेरी समझ से उनका यह आलेख कला प्रेमियों और विशेषकर युवा छात्रों के लिए विशेष तौर पर लाभकारी रहेगा। एक अनुरोध यह भी कि इस आलेख पर अपनी प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत कराएं । सादर धन्यवाद् — सुमन कुमार सिंह
रूप : कलाकृति में रूप का महत्व और उसकी अवस्था।
“कलाकार जिस रूप से प्रभावित होकर कलाकृति का निर्माण करता है वह रूप पूर्ण होता है। उसकी हर अवस्था पूर्ण होती है। रेखा, रंग, आकृति, खाली जगह सब के सब विभिन्न अवस्थाओं में पूर्ण ही होते हैं।“
रूप से सम्बंधित हम जितना भी सोच सकते हैं या विचार कर सकते है वह इन पंक्तियों में पूरा है।
रूप को हम जितना भी बदल लें, जितना तोड़-मरोड़ या विरूपण कर लें वह पूर्ण ही रहेगा। अच्छा या खराब हमारी व्यक्तिगत सोच है। ऐसा नहीं होता कि रूप में कुछ कमी आ गई, तोड़-मरोड़ करने से रूप ही बदल गया। रूप तो वहीं है जिसे हमने चित्रित किया है, यहां तो अवस्था बदल रही है, रूप को देखने की दिशा बदल रही है, लेकिन रूप तो वही है। रूप की वास्तविकता से कही भी छेड़-छाड़ नहीं और हो भी नहीं सकता। रूप तो केन्द्र विंदु है, इस केन्द्र बिंदु की परिधि में बदलाव आ रहे हैं, उसकी अवस्था बदल रही है और हम समझते हैं कि रूप बदल रहा है। बचपन से हम जो देखते आये हैं वह एक धारणा बन गई, उसी को सत्य मान लिया कि पुरुष, महिला, वृक्ष, या जानवर का रूप ऐसा होता है। यदि इस रूप में थोडा भी बदलाव हो जाये तो यही लगता है कि रूप बदल गया। लेकिन रूप तो केंद्र बिंदु है, वह स्थिर है, रूप में बदलाव कहां ? बदलाव तो उसकी अवस्था में हो रही है रूप में नहीं।
गाँव में एक बहुरूपिया (Impersonator) आया। उस गांव के लोग बड़े धार्मिक थे। यह देख बहुरूपिये ने धन कमाने के लिए एक अनोखा तरीका खोज निकाला। वह अलग-अलग भगवान का भेष बनाकर गांव में रोज़ घूमने लगा। उसका घर से बाहर निकलने का तरीका भी अनूठा था। पहले वह अच्छी तरह जाँच-पड़ताल कर लेता की घर से निकलते समय उसे कोई देख तो नहीं रहा और धीरे से बाहर निकल कर कभी राम, कभी कृष्ण तो कभी महावीर के रूप में सुबह से शाम तक गांव का चक्कर लगाने लगा। गाँव वाले बड़े प्रसन्न, जो उन्हें अलग-अलग भेष में भगवान का दर्शन होने लगा। वैसे भी गाँव वाले अधिक धार्मिक प्रवृति के होते हैं। जिसको देखो वही बहुरूपिये को दान में कुछ न कुछ देने लगा। खाने की बात ही मत पूछो, जिस घर के सामने से गुजरता वही भोजन के लिए आमंत्रित करता। बहुरूपिये को पता था कि लोगों की आस्था के साथ कैसे अपने रूप को परिवर्तित करें। बहुरूपिये ने कुछ भी नहीं किया। उसने बस अपने रूप की व्यवस्था में जोड़-घटाव कर परिवर्तन कर लिया, अपने रूप की दशा में बदलाव कर ली। लेकिन उसका रूप तो वही है। उसमें कोई बदलाव नहीं, कोई जोड़-तोड़ नहीं।
यदि हम पुरुष की आकृति या रूप से कोई भी अंग हटा लें, या कुछ जोड़ दे, उसके अनुपात को कम या अधिक कर लें फिर भी वह पुरुष ही रहेगा, ऐसा नहीं होता कि इन बदलावों से पुरुष का रूप महिला या पंछी दिखने लगे। यह भी आवश्यक नहीं कि पुरुष के सारे अंगों को दिखलाया ही जाये। एक रेखा ही उसके रूप को दर्शाता है। इस एक रेखा में पुरुष के सारे गुण आ जाते हैं, क्यों कि पुरुष रूप है, रुप की अवस्था बदलती है रुप नहीं।
पच्छिम के कलाकार रूप की अवस्था को लेकर एक प्रयोग किया तथा उसके सत्यापन के लिए फ्रंस का कलाकार पॉल सेजां ने माउंट सेंट पहाड़ी से थोड़ी दूरी पर कई वर्षों तक एक ही जगह, एक ही दिशा में उस पहाड़ी के अनगिनत चित्र बनाये। इन सारे चित्रों को देखने पर पॉल सेजां को पता चला कि माउंट सेंट का रूप तो वही है सिर्फ उस की अवस्था बदल रही है, परिवेश बदल रहे हैं, बस यही से कला जगत को एक नई दिशा मिलती है, नई सोच पैदा होती है और इसी सोच पर आधुनिक कला का उदय होता है। आधुनिक अर्थात पुरानी विचारधारा से ऊपर उठ कर नए विचार में आना, खोज की प्रवृति के साथ आगे बढ़ना। यदि देखा जाये तो पॉल सेजां के विचारों को केन्डेन्सकी ने और उँचाई तक पहुंचा दिया। इसने साबित कर दिया कि रुप की बदलती हुई अवस्था अमूर्त तक जाती है।
अमूर्त कोई अलग नहीं यह रूप की ही एक अवस्था है, जिसमें उस रूप के सारे गुण और लक्षण होते हैं। पिकासो अपनी कलाकृतियों में रूप के विभिन्न अवस्थाओं का इतना विश्लेषण किया कि शायद ही कोई कर पाया होगा। रूप की तो कई अवस्थाएं हैं, एक-दो नहीं अनेक हैं। परन्तु आवश्यकता है पहचान की , की वह कौन सी अवस्था है रूप की, जो प्रभावशाली है। बहुरूपिये को पता था कि गाँव वाले धार्मिक हैं इसीलिए उसने अपने रूप की व्यवस्था बदल डाली, धार्मिक भेष बना लिया, नहीं तो उसे धन की प्राप्ति नहीं हो पाती। अतः कलाकार को रूप की उस अवस्था को पहचानना होगा जो प्रभावशाली हो, संवेदनशील हो तभी हम आधुनिक परिवेश में एक सशक्त और प्रभावी कलाकृति का निर्माण कर पायेंगे।
आवरण चित्र : कान्दिस्की की एक कृति