सार्थक उद्देश्य को लेकर की जाने वाली रचनात्मक यात्राओं का अंतिम गंतव्य कहां होता है?

आयोजन और प्रयोजन दो अलग अलग संज्ञाएं हैं जिनकी प्रकृति एक दूसरे से पूरी तरह भिन्न है । आयोजन में जहां अनुष्ठान,जगमग और प्रदर्शन होता है वहीं प्रयोजन में संवाद, विमर्श, सर्जनात्मक ऊष्मा और आत्मीय अंतरंगता का भाव होता है।

श्री नर्मदा प्रसाद उपाध्याय

मेरे लिए भोपाल में आयोजित “विश्वरंग ” का पुराने विधान सभा परिसर, जिसे अब मिंटो हॉल कहते हैं, में आयोजित साहित्य और कला का महोत्सव, प्रयोजन का आयोजन लगा जो उत्सवों की अनुष्ठानिक परंपरा में अपवाद है। कैसे तीन दिन बीत गए पता ही नहीं चला। निरंतर चलने वाले कला और साहित्य के विभिन्न विषयों पर केंद्रित सत्र और फिल्म,मनोविज्ञान और पुस्तक चर्चा तथा जनजातीय विषयों से लेकर मैथिली ठाकुर के मनमोहक गायन तक सब कुछ और इनके अलावा भी बहुत कुछ रचनात्मक ऐसा मिला जिसने समृद्ध किया।

विश्वरंग-2022

श्री संतोष चौबे जो इस प्रयोजन उत्सव के सूत्रधार और इसके स्वप्न को यथार्थ में परिणत करने वाले समर्पित व्यक्तित्व हैं निश्चय ही हार्दिक बधाई और साधुवाद के पात्र हैं और ऐसे ही साधुवाद के पात्र उनके सभी सहयोगी और विशेष कर उनके द्वारा संचालित विश्वविद्यालयों के छात्र भी हैं जिन्होंने इस महोत्सव की सफलता के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। श्री लीलाधर मंडलोई, श्री मुकेश वर्मा, श्री अशोक भौमिक, श्री सिद्धार्थ और अदिति चतुर्वेदी श्री बलराम गुमाश्ता और डॉक्टर संगीता जौहरी ने पूरा पूरा प्रयास किया कि इस आयोजन की सफलता न केवल सुनिश्चित हो बल्कि यह ऐसे आयोजनों का आदर्श मानक भी बने। ख्यात रचनाकार और साहित्यिक तथा कलात्मक कार्यक्रमों के सफल संचालन के पर्याय बन चुके श्री विनय उपाध्याय की सक्रियता ने कार्यक्रमों के स्तर को मौलिक भव्यता प्रदान की। पैंतीस देशों से अधिक के प्रतिनिधियों का और एक हज़ार से अधिक रचनाकारों का जहां प्रतिनिधित्व हो ऐसे विराट रचनात्मक महोत्सव की त्रुटिहीन व्यवस्था अपने आपमें उत्सव संस्कृति की नई परिभाषा गढ़ती है और सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि श्री संतोष चौबे इसे उस रचनात्मकता को समर्पित करते हैं जो उन्हें उनके स्वर्गीय पिता और प्रख्यात हिंदी साहित्यकार श्री वनमालीजी से मिली। इस रचनात्मक आयोजन की सफल प्रस्तुति उन्हें दी गई सच्ची श्रद्धांजलि है और उनकी स्मृति के चरणों में सृजन के फूलों से बिखेरी गई सौरभ से भरपूर पुष्पांजलि भी।

नैनसुख पर केंद्रित मोनोग्राफ का विमोचन

इस अवसर पर मुझे देशज कला और हमारी ज्ञान परंपरा तथा विलुप्त होती भाषाओं को लेकर अपने विचार रखने और इनसे जुड़े हुए प्रश्नों पर विमर्श करने का अवसर मिला और सत्रों के अलावा भी देश के विद्वानों से और विशेष रूप से विदेश से आए विद्वानों से विचार साझा करने और उन्हें हमारी कलात्मक तथा साहित्यिक रचनात्मकता से अवगत कराने का भी अवसर मिला।

मेरी इस प्रयोजन उत्सव की सबसे उत्कृष्ट उपलब्धि मेरे नैनसुख पर लिखे गए मोनोग्राफ का लोकार्पित होना रही। नैनसुख पहाड़ की गुलेर कलम के महान चित्रकार थे। अठारहवीं सदी की यह गुलेर शैली संसार की सुप्रसिद्ध कांगड़ा शैली की जनक है। नैनसुख ने अपने नाम के अनुरूप नयनों को अप्रतिम सुख देने वाले ऐसे कलात्मक चित्रों को रचा जो भारतीय कला की अनमोल धरोहर हैं और जिन्हें देखकर आंखें विस्मय के रंगों से रंग जाती हैं। श्री अशोक भौमिक जो स्वयं एक प्रख्यात चित्रकार और कला इतिहासकार हैं ने, निरंतर मेरे पीछे पड़कर इसे लिखवाया, मुझसे निरंतर विमर्श किया और मेरे स्नेही मित्र श्री लीलाधर मंडलोई मुझे निरंतर स्मरण कराते रहकर मेरी नींदों के शत्रु बने रहे।

बिगुल वादक

अकेले मेरे ही नहीं तीन और मोनोग्रॉफ रवीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय ने प्रकाशित किए हैं और यह हिंदी जगत की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि है कि ये हिंदी में पूरी भव्यता के साथ प्रकाशित हैं। विशेषकर नैनसुख के द्वारा निर्मित वे चित्र जिनकी छवियां अत्यंत परिश्रम से देश और विदेश के विभिन्न संग्रहालयों और कला संग्राहकों से अनुरोध कर मैंने लीं वे इस मोनोग्राफ की उपलब्धि हैं। इस मोनोग्राफ में नैनसुख के पिता पंडित सेऊ और उसके अग्रज मानकू के तथा इनकी दूसरी और तीसरी पीढ़ी के कार्य भी शामिल हैं। बिगुल वादकों का एक अंकन तो ऐसा है जिसकी कीमत करोड़ों में है और जिसे ब्रिटिश शासन ने देश के बाहर ले जाने से प्रतिबंधित कर दिया है। नैनसुख पर डॉक्टर बी एन गोस्वामीजी ने अंग्रेज़ी में महत्वपूर्ण कार्य किया है और पहाड़ी शैली के प्रख्यात विद्वान और कलाकार डॉक्टर विजय शर्माजी ने पहाड़ी शैली के अनेक नए आयामों को उदघाटित किया है। उन्होंने नैनसुख के द्वारा निर्मित चित्रों पर अंकित टाकरी लिपि पढ़ी और मुझे मौलिक जानकारियां नैनसुख के बारे में उपलब्ध कराईं। मैं उनका हृदय से आभारी हूं।

इस कृति को श्री विजेंद्र ने बड़े मनोहारी रूप में आकल्पित किया है। विश्व के सर्वश्रेष्ठ प्रकाशकों के द्वारा प्रकाशित की जाने वाली उत्कृष्ट कृतियों के स्तर की इस हिंदी कृति का प्रकाशन निश्चय ही हिंदी के कला लेखन में एक अभिनव अध्याय जोड़ता है।हिंदी के सभी कला से जुड़े संस्थानों की ओर से, कलाप्रेमियों और भारतीय कला और साहित्य के तमाम पाठकों की ओर से इस प्रयास का हम हार्दिक अभिनंदन इस कामना के साथ करते हैं कि यह विश्वविद्यालय और इसके समर्पित संस्थापक श्री संतोष चौबे हिंदी में इस लेखन की यात्रा को अविराम गति से जारी रखेंगे ।

सार्थक उद्देश्य को लेकर की जाने वाली रचनात्मक यात्राओं का अंतिम गंतव्य कहां होता है?

– श्री नर्मदा प्रसाद उपाध्याय

 

(श्री नर्मदा प्रसाद उपाध्याय जी के फेसबुक पोस्ट से साभार)

One Reply to “सार्थक उद्देश्य को लेकर की जाने वाली रचनात्मक यात्राओं का अंतिम गंतव्य कहां होता है?”

  1. एक उद्देश्य पारक और सही दिशा में किए जाने वाले कला कार्यों का यह प्रथम सोपान जो हमेशा अविस्मरणीय रहेगा आयोजकों और रसिकों की वजह से यह मुकम्मल हो पाया।

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