युवा लेखक राकेश कुमार झा की पुस्तक “मिथिला चित्रकला का सिद्धांत” पर कलागुरु प्रो. जयकृष्ण अग्रवाल जी की प्रतिक्रिया, जय सर के फेसबुक वाल से ..
बंगाल के कलाकार जामनीराय को भारतीय लोक कला के पुनर्जागरण के पितामह की संज्ञा दी जाती रही है। वास्तव में जहाँ तक मेरी जानकारी है भारतीय लोककला परम्पराएं ही है जिनकी मौलिकता पर विदेशी सत्ता परिवर्तन का प्रभाव नहीं पड़ा और उनकी निरंतरता सदैव बनी रही। उनके पुनर्जागरण का तो प्रश्न ही नहीं उठता। हां जामनीराय और अनेक भारतीय कलाकारों को लोक कलाएँ प्रभावित अवश्य करती रही हैं। यह अत्यंत दुखद है कि जिन आकृतियों को हम पिछड़ी सभ्यता का प्रतीक मानते रहें हैं उन्हीं आकृतियों की कैनवास पर आते ही परिभाषा बदल जाती है। यह तो और भी दुखद है कि हम ग्रामीण अंचल का आंकलन उसके आर्थिक पिछड़ेपन से करते हैं जो कहीं न कहीं उनकी सांस्कृतिक समृद्धता का सही आंकलन करने में बाधा उत्पन्न करता रहा है।
बिहार प्रांत के मधुबनी जिले में जन्मे राकेश कमार झा द्वारा लिखित पुस्तक ‘मिथिला चित्रकला का सिद्धांत ‘ हाल ही में प्राप्त हुई। कुछ वर्ष पूर्व मधुबनी भ्रमण के दौरान राकेश से हुयी क्षणिक भेंट ने ही बहुत प्रभावित किया था । विशेष रूप से उनके व्यक्तिगत संग्रह और व्यापक जानकारी से लगने लगा था कि समयाभाव न होता तो और अधिक ज्ञानवर्धन किया जाता। मधुबनी कला से मेरा वास्तविक परिचय कलामनीषी पद्मश्री सीता देवी के साक्षात्कार से सन् 1981 के आसपास उनके नईदिल्ली प्रवास के मध्य हुआ था। इस समृद्ध कला परम्परा के प्रति जिज्ञासा तो तभी उत्पन्न हो गई थी किन्तु पास से देखने और समझने का अवसर एक लम्बी प्रतीक्षा के बाद ही मिल सका।
राकेश की यह पुस्तक ‘ मिथिला चित्रकला का सिद्धांत’ एक ऐसा दस्तावेज है जो किसी भी जिज्ञासु व्यक्ति, कलाकार और विशेष रूप से कला के छात्रों के लिये मिथिला चित्रकला और सांस्कृतिक परिदृश्य का विस्तृत विशलेषण है और कहीं न कहीं आधुनिक कला परिदृश्य में मिथिला कला को शीर्ष स्तर पर स्थापित करता है। पुस्तक की प्रति के लिये राकेश का आभार और उनके इस महती कार्य के लिये बधाई।