प्रोफ़ेसर बद्रीनाथ आर्या : कहे अनकहे तथ्य…

प्रो. जय कृष्ण अग्रवाल सर की पहचान एक कलाविद, भूतपूर्व प्राचार्य, छायाकार एवं देश के शुरुआती और शीर्षस्थ प्रिंट मेकर वाली है। किन्तु जितनी बार भी उनसे मिला, मुझे वे इन सबसे इतर एक अभिभावक के रूप में नज़र आये, समकालीन कला के किसी भी अध्याय पर जब चर्चा की नौबत आयी तो उनकी स्पष्ट राय सामने आयी। अपनी कला यात्रा के अनेक संस्मरण वे समय- समय पर अपने फेसबुक पर शेयर करते रहते हैं।वैसे होना तो यह चाहिए कि उनके संस्मरणों की इस श्रृंखला को किसी कला अकादेमी द्वारा संगृहीत कर प्रकाशित किया जाना चाहिए था। किन्तु दुर्भाग्य से ऐसी कोई पहल कहीं से दिख नहीं रही है। प्रस्तुत है वाश शैली के सिद्धहस्त कलाकार एवं कलागुरु बद्रीनाथ आर्या से जुड़ा जय कृष्ण जी का यह संस्मरण …..

प्रो.बी.एन.आर्या की प्रसिद्धि एक उत्कृष्ट वाश पेंटर की रही है किन्तु उनके संघर्षमय जीवन के कितने ही तथ्य हैं जिनसे सम्भवतः कलाजगत अपरिचित है। मैंने स्वयं सन् 1957 में लखनऊ के कला महाविद्यालय में एक छात्र के रूप में प्रवेश लिया था और इसी वर्ष बद्री बाबू की नियुक्ति भी ललित कला विभाग में प्रवक्ता के पद पर हुई। वास्तव में जुलाई 1957 में खास्तगीर साहब द्वारा प्रारम्भ किये गये एक वर्षीय पोस्ट डिप्लोमा पाठ्यक्रम में बद्री बाबू ने प्रवेश लिया और उन्हें कुछ समय प्रो.अवतार सिंह पवार के निर्देशन में कार्य करने का सुअवसर मिला। वह अपना पाठ्यक्रम पूर्ण कर भी नहीं पाये थे, इसी बीच उनके कार्य कौशल और सृजनात्मक क्षमताओं से प्रभावित होकर खास्तगीर साहब ने उन्हें अध्यापक नियुक्त कर दिया। अगले वर्ष मेंने भी आर्किटेक्चर पाठ्यक्रम छोड़ कर ललित कला विभाग में प्रवेश ले लिया। बद्री बाबू को कुछ समय एक छात्र के रूप में देखा था उन्हें अध्यापक के रूप में स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं आई। उनका सहज व्यक्तित्व और छात्रों के साथ मित्रवत व्यवहार मोह लेता था। वैसे भी उन दिनों वरिष्ठ छात्रों को सम्मान देने की परंपरा थी और वह भी कनिष्ठ छात्रों का मार्गदर्शन करना अपना दायित्व समझते थे।

लखनऊ विश्वविद्यालय में विलीनीकरण से पहले कला महाविद्यालय की समस्त प्रसाशनिक व्यवस्था उत्तर प्रदेश सरकार के अधीन थी और संचालन में समस्त सरकारी नियमों का कड़ाई से पालन किया जाता था। उन दिनों छात्रों और अध्यापकों के लिये प्रातः दस बजे से सायं चार बजे तक कक्षा में उपस्थित रहना और अन्य कर्मचारियों को सायं पांच बजे तक रहना अनिवार्य था। केवल आधे घंटे का दोपहर में भोजनावकाश मिलता था। कक्षा में छात्रों की उपस्थिति का बड़ी कड़ाई से पालन किया जाता यहां तक कि शौचालय आदि जाने के लिये भी अध्यापक से अनुमति लेनी पड़ती थी। प्रतिदिन साड़े पांच घंटे कक्षा में कार्यरत रहना और वह भी अध्यापक की उपस्थिति में, खाली तो नहीं बैठा जा सकता था। शायद यही कारण रहा कि उनदिनों निर्धारित कक्षा कार्य से इतना अधिक कार्य छात्र कर लेते थे कि आंकलन के लिये चयनित कार्य जमा करने के उपरांत भी बहुत सा कार्य बच जाता था।

बद्री बाबू वाश पेन्टिंग सिखाते थे। उनदिनों वह समय से पहले ही कालेज पहुंच कर व्यवस्था में जुट जाते। वह एक ऐसा समय था जब सभी को आर्थिक समस्याओं से जूझना पड़ता था विशेष रूप से कला मंहाविद्यालय में प्रवेश लेनेवाले अधिकतर छात्र कला सामग्री का खर्च वहन करने में सक्षम नहीं होते थे जो उन्हें अधिकतर कालेज से ही उपलब्ध कराई जाती। बद्री बाबू प्रतिदिन सामग्री वितरण से लेकर अन्य व्यवस्थाओं को कक्षा प्रारम्भ होने से पहले ही निबटा लेते और छात्र कक्षा में पहुंचते ही काम में जुट जाते। बद्री बाबू अपने हाथ में एक दो इंच और एक चार इंच का जापानी वाश ब्रश लिये छात्रों को वाश तकनीक की बारीकियां समझाते दिखते। वाश ब्रश एक प्रकार से उनकी पहचान बन गये थे जो हर समय उनके हाथों में ही रहते थे।

प्रारम्भ में मेरी गिनती शरारती छात्रों में की जाती थी किन्तु अपने काम के प्रति मेरी निष्ठा बद्री बाबू से छिपी न रह सकी। शीघ्र ही मैं उनके इतना निकट आ गया कि एक दिन उन्होंने मुझे अपने घर बुलाया। उनका घर हीवेट रोड वर्तमान में शिवाजी मार्ग पर यशपाल जी के घर के पीछे की गली के अंतिम छोर पर था और उनका स्टूडियो प्रथमतल पर। वह मुझे अपने स्टूडियो में ले गये। वहां पहुचते ही जो मैने देखा मेरी आंखें फटी की फटी रह गई। मेरे सामने सरस्वती की विशालकाय वाश पेन्टिंग और उसके साथ ही एक उतनी ही बड़ी उसकी अधूरी अनुकृति थी। पेन्टिंग डबिल एलीफेंट साइज़ जो लगभग 26× 40 इंच के कागज़ पर बनी थी। बद्री बाबू ने बताया कि यह पेन्टिंग बिक चुकी है और ऐसी ही एक और पेन्टिंग उन्हे बनानी है। पेन्टिंग में इतना बारीक काम किया गया था कि उसकी अनुकृति बनाना भी एक जटिल काम था। बद्री बाबू के पास समय भी कम था।मुझे उन्होंने साथ में काम करने के लिये बुलाया। उन दिनों मेरा घर बहुत दूर नहीं था। यह तय हुआ कि हमलोग शाम का खाना खाने के बाद आठ बजे से रात के दस बारह बजे तक काम करेंगे।

अपने गुरु के साथ उनकी पेन्टिंग पर काम करने का सौभाग्य प्राप्त कर मैं गौरवान्वित महसूस कर रहा था। मुझे छोटा मोटा पानी की लहरों आदि का बड़ी बारीकी से फिनिश करने का काम सौंपा गया। काम जटिल और उबाहट भरा तो था किन्तु मरे लिये एक ऐसा अवसर था जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। बस तन मन से जुट गया। हम लोग बिना रुके तीन चार घंटे तक काम करते रहते बस बीच में कई बार चाय का दौर अवश्य हमें देर रात जागते रहने में मदद करता। इस बीच मुझसे वरिष्ठ छात्र आ.एस.धीर और मेरे सहपाठी कृष्ण गोपाल सिंह भी हाथ बटाने आये किन्तु वह दूर रहते थे अतः अधिक समय नहीं दे पाते थे। अंत में वह दिन भी आया जब सरस्वती अपने पूर्ण वैभव में अवतरित हुई। उस दिन हीवेट रोड की प्रसिद्ध बंगाली स्वीट हाउस के रसगुल्ले और समोसे का प्रसाद अपने गुरु से प्राप्त कर हम कृतार्थ हुए।

बद्री बाबू के कई चित्र बड़े लोकप्रिय हुए। उनके एक और बड़े आकर के चित्र सांवरी की उन्होने दो या तीन प्रतियां बनाईं जिसमें एक प्रयागराज संग्रहालय में सुरक्षित हैं और एक चित्र हाल ही में सैफ्रन की नीलामी में ऊंची कीमत पर बिकी। वास्तव में वाश टैकनीक में बहुत बड़े चित्र बनाने का प्रचलन नहीं था। इसका एक कारण मिनिएचर शैली के चित्रों की तरह सूक्ष्म रेखाएं और वाश शैली के धूमिल रंगों का प्रभाव था जिसे बहुत दूर से नहीं देखा जा सकता था विशेष रूप से बड़े चित्रों को देखने के लिये एक दूरी बनाए रखना आवश्यक हो जाता है। जहां तक मेरी जानकारी है आचार्य सुखवीर सिंघल और बद्रीनाथ आर्या ही ऐसे वाश शैली के चित्रकार रहे थे जिन्होंने डबल एलीफेण्ट साइज़ के कागज़ पर चित्र बनाने में सफलता प्राप्त की। बाद में सनत कुमार चदर्जी ने भी एक बड़ी स्क्रोल वाश पेन्टिंग की रचना की।

इनके चित्रों में सूक्ष्म रेखाओं के साथ वाश शैली के धूमिल प्रभाव को बनाए रखते हुऐ रंग विन्यास के ऐसे प्रयोग किये गये जिन्हें आवश्यक दूरी बनाए रखते हुऐ भी उनके दृश्यात्मक प्रभाव में कोई अंतर नहीं आता था। इन दोनों कलाकारों ने अनेक वृहद् आकर के चित्र बनाए जिन्हें वाश चित्र शैली के ऐतिहासिक चित्रों की संज्ञा दिया जाना अतिशयोक्ति नहीं होगी। विशेष रूप से बद्री बाबू ने बंगाल वाश शैली के गुरु बीरेश्वर सेन और पश्चिमी अकादमिक शैली में प्रशिक्षित ललित मोहन सेन से प्रशिक्षण लिया था। साथ ही उन्हें आचार्य असित कुमार हालदार के सानिध्य का लाभ भी मिलता रहा था। किन्तु उन्होंने बंगाल वाश का विस्तार करते हुये लखनऊ वाश शैली को स्थापित करने में अद्भुत योगदान दिया। तकनीकी स्वतंत्रता के साथ उन्होंने धार्मिक और परम्परागत विषयों के अतिरिक्त सामयिक तत्वों का अद्भुत समावेश कर इस शैली की प्रासंगिकता को बढावा देने का सफल प्रयास किया था। ललित मोहन सेन यद्यपि लखनऊ कला मंहाविद्यालय के ही छात्र रहे थे किन्तु लन्दन में प्रशिक्षण काल में फिगर ड्राइंग का प्रशिक्षण भी उन्होंने लिया था। जिससे शरीर के अंगों के सही अनुपात का उन्हें ज्ञान था। बद्री बाबू ने ललित मोहन सेन की इस विशेषता का समुचित लाभ लिया जो उनके चित्रों में स्पष्ट दृष्टिगत है। अधिकतर वाश शैली के कलाकार चित्र के विषय और तकनीकी प्रभाव पर बल देते रहे थे किन्तु आकारों के अनुपात पर उनका अधिक ध्यान नहीं जाता था। बद्री बाबू के चित्रों में उनकी शारीरिक संरचना और अनुपात की जानकारी उन्हें विलक्षणता प्रदान करती है। आज एक ओर जहां हम वाश शैली के इन चित्रों को देखकर चमत्कृत होते हैं वहीं इतिहास बनती जा रही इस विधा के प्रति आगे आने वाली कलाकारों की पीढ़ी की उदासीनता विचार करने को बाध्य करती है।

बद्री बाबू पेशावर के कभी सम्पन्न रहे विस्थापित परिवार से थे। विभाजन के उपरांत आर्थिक समस्याओं से उन्हें सदैव ही जूझना पड़ा जिसे उन्होंने एक चुनौती मानकर स्वीकार कर लिया था। उनके स्टूडियों में बिताए गये पलों में मैने तकनीकी ज्ञान तो अर्जित किया ही उसके अतिरिक्त स्वाभाविक रूप से एक निकटता भी हमलोगों के बीच आ गई थी। काम के सिलसिले में देर रात तक हम उनके स्टूडियो में समय बिताते थे। अक्सर वातावरण की नीरवता को दूर करते हुये वह अपने अनुभवों को हमसे साझा करते। उनके जीवन की कितनी परतें रहीं थी जिनको ठीक से समझ पाने की न तो मेरी उम्र थी और न ही बौद्धिक परिपक्वता, किन्तु जिसे आज हम एक महान वाश शैली के जादूगर के रूप में जानते है उन्हें अनेक अन्य विधाओं में भी दक्षता प्रप्त थी। बहुत सा ऐसा कार्य जो उन्होंने अपनी आर्थिक समस्याओं से निदान पाने के लिये किया था। उसकी हल्की सी झलक मुझे मिली थी। जब मै उनके बारे में सोचता हूं तो लगता है कि यदि आज उन सब कार्यों का पुनर्वलोकन किया जाय तो निसंदेह वह भी उत्कृष्टता की श्रेणी में अद्भुत उदाहरण होंगे। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे प्रदेश में आधुनिक कला के संरक्षण और अभिलेखीकरण पर कोई ध्यान नहीं दिया गया और अभी भी इसके महत्व को नकारा जा रहा है। दृश्य कलाऐं जनश्रुतियों पर कितना और कबतक जी सकेंगी यह एक गम्भीर विषय है।

बद्री बाबू के जीवन के अनेक पक्ष रहे थे। एक समय था जब रंगीन फोटोग्राफी प्रचलन में नहीं थी। फोटोग्राफ हाथ से रंगे जाते थे। उन दिनों फोटोग्राफ रंगने के लिये पारदर्शी जलरंग और तैलीय रंग दोनो उपलब्ध थे। राजे महाराजे और अन्य सम्पन्न समाज के लोगों में रंगीन पोर्ट्रेट बनवाने का प्रचलन था। उन दिनों लखनऊ के हजरत गंज में स्थित जी.डब्ल्यू. लारी एड कम्पनी और सी.मल. एंड कम्पनी को इस क्षेत्र में प्रसिद्धि प्राप्त थी और बद्री बाबू इन दोनों के लिये कार्य करते थे। उन दिनों कैनवास टैक्सचर के ब्रोमाइड पेपर आते थे जिनपर बने फोटोग्राफिक पोर्ट्रेट पर बद्री बाबू तैल रंगों से उन्हें इतनी सुगढ़ता से रंगीन बना देते थे जैसे कैनवास पर किसी श्रेष्ठ कलाकार के हाथ से बने पोर्ट्रेट हों। उन्होंने मुझे भी वार्म टोन फोटोग्राफिक पेपर पर बने पोर्ट्रेट रंगने की विधि बताई थी। वह एक अच्छे फोटोग्राफर भी रहे थे। वह अक्सर हजरतगंज स्थित सेठ स्टूडियो में जाया करते जहां सुप्रसिद्ध कलाकार ललित मोहन सेन भी आया करते थे जिन्होंने बद्रीनाथ को काफी प्रभावित किया था। किन्तु उन्होंने फोटोग्राफी को अपने सृजन का माध्यम कभी नहीं बनाया।

बद्री बाबू ने काफी समय तक यह कार्य किया किन्तु इससे उन्हें अधिक आमदनी नहीं हो पाती थी। अपनी आय के अन्य साधनों में उन्होने कैलेंडर और ग्रीटिंग कार्ड के लिये भी चित्र बनाए। एक समय था भारत के सबसे बड़े शिवाकाशी स्थित छपाई उद्योगों के लिये और कानपुर के किसी बड़े ग्रीटिंग कार्ड कम्पनी के लिये भी उन्होंने कार्य किया। मैने उनके स्टूडियों में उनके बनाये कैलेन्डर के कुछ चित्र देखे जो अधिकतर अपारदर्शी रंगों में बनाए गये थे। सबसे अधिक चमत्कृत उनकी सजीवता और तकनीकी उत्कृष्टता प्रभावित करती थी जिसके लिये उनकी पहचान बन चुकी थी किन्तु स्वयं बद्री बाबू इन कार्यों को अपनी मजबूरी समझते रहे और उनपर कभी भी अपना नाम नहीं लिखा। वह तो इनसे छुटकारा पाने के लिये लालाइत उसदिन की प्रतीक्षा करते रहे थे जिस दिन वह पूर्ण रूप से स्वतंत्र होकर अपने सृजन की दुनियां में लीन हो जायें। मुझे स्मरण है जब राजकीय कला एवं शिल्प महाविद्यालय, लखनऊ में स्थाई पद पर उनकी नियुक्ति हो गई तो शिवाकाशी को उन्होंने सदैव के लिये अलविदा कह दिया। किन्तु इसके उपरांत भी उन्हें संघर्ष से मुक्ति नहीं मिल पाई। उन्हें क्या पता था कि जिस जिंदगी के संघर्ष से वह मुक्त होने के सपने देखते रहे थे। उससे बड़ा संघर्ष तो सृजन की दुनियां में प्रत्येक कलाकार के सामने तब-तब रहता है जब तक वह सृजनशील रहता है और बद्री बाबू अपने अंत समय तक सृजनरत रहते हुए अनन्त की ओर अग्रसर हो गये।

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