पटना में छापा कला की अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी : 3

अपने निर्माण के बाद से बिहार म्यूजियम,पटना ने अपनी कला विषयक गतिविधियों के माध्यम से स्पष्ट कर दिया है कि उसका लक्ष्य वैश्विक कला गतिविधियों से बिहार के कला प्रेमियों को रूबरू कराना भी है। अपनी स्थानीय गतिविधियों के साथ-साथ। वर्ष 2023 की बात करें तो द्वितीय अंतर्राष्ट्रीय म्यूजियम बिनाले और उसके बाद इंटरनेशनल प्रिंट मेकिंग एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत आयोजित छापा कला की अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी का आयोजन इस दावे की पुष्टि करता है। वरिष्ठ कला समीक्षक अनीस अंकुर की कलम से यहाँ पेश है इस छापा कला प्रदर्शनी पर एक विस्तृत रिपोर्ट। वेबपेज की सीमाओं को ध्यान में रखते हुए हम इसे धारावाहिक के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, हाज़िर है दूसरा भाग। अभी तक आपने पढ़ा वर्ष 2013 में आयोजित “शीर्षकहीन” प्रदर्शनी एवं 2014 में आयोजित “इनडाइजेशबल” शीर्षक प्रदर्शनी के बारे में, इस अंक में 2015 की प्रदर्शनी का विवरण …..

Anish Ankur

2015 का विषय “फीयर: हाॅरर/टेरर”:

इस वर्ष के इर्द-गिर्द छापाकलाकारों ने भय, दहशत और आतंक को केंद्रित कर कई अच्छी कृतियां निर्मित की है। अपने आस-पास के माहौल में पनप रही असुरक्षा,आशंका और इससे जनित हिंसा को लेकर कई कलाकारों ने अच्छी कृतियों की रचना की। डरावनेपन, आंतक, हिंसा के लिए अधिकांश छापाकलाकारों ने लाल रंग का उपयोग किया है साथ ही काला रंग भी घड़ल्ले से इस्तेमाल में लाया गया है। काला रंग अंधकारमय भविष्य को इंगित करता प्रतीत होता है। इन चित्रों को देखते हुए फ्रांसिस गोया के चित्रों की याद आती है जिनके यहां अविवेक, हिंसा और छाये अंधकार के लिए आसमान का काला रंग आज भी देखने वाले को हाॅंट करता है।

अबन राजा के सेरीग्राफ में बने प्रिंट्स ‘पोस्ट पार्टिशन वोकैबलरी’ में भारतीय उपमहाद्वीप में भारत के नक्शे को दिखाया गया है। अमूर्त से लगने वाले इस चित्र मेें कलाकार ने विभाजन की विभीषका और त्रासदी को अभिव्यक्त करने के लिए भारत के नक्शे को लाल रंग से चित्रित किया है मानों हिंदुस्तान -पाकिस्तान में बंटवारे ने देश को लहूलुहान कर डाला है। यह चित्र 1947 की उस खूंरेजी की याद दिलाता है जो भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी को सामने लाती है। भारत के मानचित्र के बाहर नीले रंग, कत्थई कौर काई रंग की रेखायें बनी है। यह चित्र 2015 के बने छापाचित्रों के महत्वपूर्ण चित्रों में से है।

ठीक इसी प्रकार नाह अमिला किंग की कृति ‘नारसिस्टिक सिग्निफिकेंस’, जो इचिंग तकनीक से बनी है ध्यान आकृष्ट करती है। इस छापाचित्र में एक दो लोग भयभीत अवस्था में भाग रहे हैं जिनका पीछा एक भीमकाय टैंक कर रहा है वहीं दो लोग निरपेक्ष भाव से डर के मारे भागते लोगों का सेल्फी लेने में व्यस्त नजर आते हैं। समाज में आम तबके के बीच व्याप्त भय और असुरक्षा के माहौल उच्च मध्यवर्गीय तबके की उदासीनता को चित्रित करने वाली यह प्रभावी कृति बन पड़ी है।

सोजान पाटिल की शीर्षकहीन कृति में एक व्यक्ति के आतंक से भरे चेहरे को दो भागों में विभक्त बनाया है। सेरीग्राफ में बनी इस कृति के बायींओर भय तो दायीं ओर दहशत को अंकित किया गया है। आतंक हमारे भीतर उस अनहोनी सी आशंका से जन्म लेता है जबकि भय हमारे साथ उन बुरे अनुभवों का परिणाम होता है जिससे हम गुजरे हुए होते हैं। अपने आस-पास की दुनिया में हम उन छवियों व बिम्बों से आक्रांत रहते हैं जो समाचार पत्रों और सोशल मीडिया के माध्यम से हम तक पहुंचती रहती है।

डर के लिए मनुष्य और वानर के मध्य तुलनात्मक संबंधों के माध्यम से समझने की कोशिश की गयी है। दुर्गा प्रसाद बंदी ने काली व पीली रेखाओं का उपयोग कर मनुष्य के अंदर बैठे जानवर यानी ‘ एनीमल स्पिरिट ’ को भय का कारण बताने की कोशिश की है। जुलिया वेकफील्ड का फोटोपाॅलिमर इचिंग में किया गया काम विषय के साथ न्याय करता है। एक उल्लूनुमा चेहर पर डर का साया चारों ओर के काले-अंधेरे माहौल में देखा जा सकता है। एक अंधेरी सुरंग के मुहाने पर बैठे रात में विचरण करने वाले उल्लू के मुखाकृति के अंदर बैठे खौफ को देखा जा सकता है। जुलिया वेकफील्ड ने कलम, चारकोल और इचिंग वाली सूई की सहायता से इस कृति को बिना किसी छवि का सहारा लिए रचा है।

लुईस एनटोनियो टोरेस विलर ने पेरू के स्थानीय निवासियों के अंदर भय को चित्रित किया है। इन स्थानीय निवासियों को असमानता का दंश झेलना पड़़ता है वहीं उनके रोजमर्रा के समाजिक जीवन में उथल-पुथल की स्थायी उपस्थिति रहा करती है। प्राकृतिक संसाधनों, नदियों आदि से भरे-पूरे इस हरी-भरी जगह पर साम्राज्यवादी देशों की गिद्ध दृष्टि लगी रहती है। इसका खामियाजा यहां के मूल निवासियों को भोगना पड़ा है। कितने लोगों की हत्या की गई उसका कोई हिसाब नहीं है। कितने कब्र हैं जिन्हें न्याय की उम्मीद है तथा कईयों को तो ऐसे खत्म किया गया कि उन्हें न तो कब्र नसीब नहीं हुआ और न ही इस मौत का कोई गवाह बन सका। वुडकट में बनी यह कृति इस नृशंस प्रक्रिया से जन्मे भय को प्रकट करने की कोशिश करता है। कृति में उंचाई से पकड़कर नीचे तितली, घर और और नदी में इंसान को नदी में फेंक दिया जा रहा है। तस्वीर की शांति में एक दहशत का माहौल है जिसमें बेहद सजीव ढ़ंग से चित्रित किया गया है।

तेजस्वी सोनवाने ने अपनी कृति ‘फीयर’ में मुंबई के धारावी स्लम बस्ती के अपने अनुभवों को अपना विषय बनया है जिसमें मनुष्य जानवरों से हालात में रहने को मजबूर है। भय को चित्रित करने के लिए इन्होंने अपने इचिंग व रेखांकन में मनुष्य के देह की आकृति, पक्षी और पशु के समान बनाया है पर मुखाकृति मनुष्यों जैसी की है। प्रकाश, अंधकार और टेक्सचर के द्वारा उन्होंने विषय के अनुकूल रचने की केाशिश की है।

युला जे कोंब्रेनो बोनिल्ला ने क्रूरता को चित्रित करने के लिए ‘ड्राईप्वाइंट’ तकनीक का उपयोग किया है विषय है ‘ह्यूमैनिटी’। एक दूसरे से गुत्थम-गुत्था तथा माॅब लिंचिंग का सा दृश्य निर्मित किया है जो आज के समकालीन भारत के निर्मम यथार्थ बन चुका है।

स्नेहा चोरदिया गोयल की कृति का नाम है ‘ फाइंडिंग ’। इचिंग और चाइन कोले विधि से खालीपन,अकेलापन आदि को चित्रित किया है। इसमें एक घर का दृश्य है जिसमें दरवाजे खुले हैं, कुर्सी यू हीं पड़ी है। दरवाजे कुछ यूं चित्रित किये गए हैं मानो लंबे वक्त से कोई वहां आया नहीं है। यह दृश्य अतीत की स्मृतियां,अनिश्चितता और किसी प्रियजन को खो देने के गहरे अहसास से भरा हुआ है। घूसर रंग में हल्का काला रेखांकल उदासी के भाव को और गहरा कर देता है।

मर्जान पाइपलेजादेह की कृति ‘इट्स ग्रीन अगेन’ में ईरान में मौजूद मिनिएचर पेंटिंग्स का उपयोग किया है। इन पेंटिंग्स में स्त्री पात्र रंगबिरंगे परिधानों में रहा करती हैं। यहां रंगबिरंगे परिधानों को काले रंग से पेंट किया गया है। इस कालेपन ने अन्य दूसरे रंगों को विस्थापित कर दिया है। यहां इस बात को सामने लाने की कोशिश की गई है कि समृद्ध परंपराओं वाले ईरान में क्या औरतों को उनके हक दिये जायेगे या फिर उन्हें काले नकाब के पीछे फिर से धकेल दिया जाएगा। इस डर को इस कृति में पकड़ने की केाशिश की गई है।

यूक्रेन के कलाकार अलेक्सांद्रा साशा द्वारा लीनोकट में आतंक व युद्ध की विभीषका को अभिव्यक्त करने के लिए ब्लैक एंड व्हाइट कलर का इस्तेमाल किया गया है। युद्ध तब तक हमें प्रभावित नहीं करता जब तक कि वह हमारे घर और परिवार तक न आ घमके। विद्रूप चेहरे , ऐंठी उंगलियां , निकली जीभ, सन्न आंखें आदि के माध्यम से हमारे आसपास के माहौल में व्याप्त भय को प्रकट करने की कोशिश की गयी है।

भारत के नीरज सिंह खांडका की इचिंग की हुई कृति का शीर्षक है ‘फीयर ऑफ फ्यूचर’। इस छापाचित्र में एक पूंछ वाले एक ऐसे चैपाये जानवर को चित्रित किया गया है जिसका मुख मानव की तरह है। उसका शरीर आधुनिक अस्त्रों-शस्त्रों से लैस है। यह चित्र मानव के अंदर बैठे आसुरी प्रवृत्ति को निशाने में लेकर बनाया गया है। इस चित्र के अनुसार हमारे अंदर मौजूद एनीमल इंस्टींक्ट ही वह प्रमुख चीज है जिससे डरने की आवश्यकता है।

मेक्सिको के रोबर्टो रोड्रीग्यूज द्वारा ड्राईप्वाइंट में बनायी गयी कृति को नाम तो फीयर का दिया गया है परन्तु इसमें एक हंसते हुए जबड़े का चित्र अंकित किया गया है। चित्र में अट्टाहास करता दांतों भरा चेहरा नजर आ रहा है। एक तरह से कहें तो दांतों का क्लोजअप जैसा है। वैसे तो किसी को हंसते हुए देख मन में खुशी होती है पर यहां चित्र का ट्रीटमेंट कुछ ढ़ंग से किया गया है कि वह देखने वाले के मन में डर पैदा करता है। जैसे फिल्मों में खलनायक के हंसने पर दर्शक के मन में भय का संचार होता है उसी प्रकार यह चित्र सितम ढ़ाने वाली हंसी की याद दिलाती है।

भारत के रेयान आब्रेउ की कृति ‘वार टाइड’ भी इचिंग से बनायी गई है। यह छापाचित्र पुराने मिथकों का सहारा लेकर युद्ध की समकालीन त्रासदी को सामने लाता है। चित्र में युद्ध और मौत का पैगाम देने वाले को देख एक डरा हुआ बच्चा भागने की मुद्रा में है। मौत के संदेशवाहक के दाये हाथ में हसुआ है उसके ठीक बगल में देवदूत का सर धड़ से अलग हो चुका है। पास में मरे हुए पक्षी जमीन पर पड़े हुए हैं। आसमान युद्ध के मशीनों के धुंए से आच्छादित है। युद्ध कैसे मानव सभ्यता के लिए खतरा बन चुकी है इसे बेहद प्रभावी ढ़ंग से सामने लाती कृति है ‘वार टाइड’। यहां भी बाकी चित्रों की तरह स्याह व सफेद रंग का इस्तेमाल किया गया है।

फीयर: हाॅरर/टेरर में जितने भी छापाकलाकार हैं उन्होंने अधिकांशतः काले रंग का उपयोग किया है। काला सफेद और कहीं-कहीं लाल रंग। हमारे अंदर के भय की भावना को अभिव्यक्त करने के लिए इन रंगों पर निर्भरता अधिक रही है। डर पैदा करने वाला तत्व सबसे अधिक अंधकार हुआ करता है फलतः अंधकार के लिए काला रंग इस्तेमाल में लाया गया। खून हमें बेहद भयभीत करता है खून का लाल रंग दहशत पैदा करता है लिहाजा लाल रंग भी इसका स्वाभाविक चुनाव रहा करता है। चित्रों में गहन अंधकार बार-बार स्वाभाविक रूप से चले आते हैं। सभी छापा कलाकारों ने वैसे तो रंगों के चुनाव में प्रचलित अवधारणा से काम लिया है। यदि विषय को देखें तो मिथक से लेकर किंवदतियों तक का उपयोग किया गया है। भय के कारकों की पड़ताल करने की कोशिश की गई है कलाकारों ने अपने आसपास की हिंसा के लिए बाहरी कारकों को तो जिम्मेवार ठहराया ही है लेकिन साथ ही मनुष्य के अंदर की आसुरी प्रवृत्तियों को भी निशाने पर रखा है। अधिकांश कलाकारों के लिए मनुष्य के भीतर के ‘एनीमल स्पिरिट’ दहशत को जन्म देने वाला प्रधान तत्व माना है। कई र्कइयों के लिए अपने देश के इतिहास, संस्कृति व परंपरा में मौजूद तत्वों को भी इसके लिए जिम्मेार ठहराया है। कुछ कलाकारों ने इतिहास की क्रूर व नृशंस घटनाओं को पेंट कर डर की अपनी समझ को प्रकट करने के लिए उपयोग में लाया है।

कुछ कलाकारों ने सोवियत संघ को आड़े हाथों लिया है। 1940 में कैतिन नरसंहार का उदाहरण दिया है। पोलैंड के कलाकार क्रिस्तीना मोनिएका बोगदान ने इतिहास के एक बेहद विवादास्पद घटना को आधार बनाया है। इस नरंसहार केा लेकर सोवियत संघ और नाजी जर्मनी ने एक दूसरे पर दोषारोपन किया है। ज्ञातव्य हो कि पोलैंड पर 1939 में नाजी जर्मनी के हमले के साथ द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हुआ। बड़े पैमाने लोगों के कब्रों के मिलने के बाद जर्मन सेनाओं ने इसके लिए समाजवादी सोवियत संघ पर इसका दोषारोपन किया। क्रिस्तीना मोनिएका बोगदान ने अपने चित्र में एक तरह से नाजी नैरेटिव को जस्टिफाई किया है। यहां कलाकार नाजी जर्मनी के निर्मम युद्ध अपराधों के बारे में चुप्पी और सोवियत संघ पर निशाना साधना उनके वैचारिक पूर्वाग्रह को सामने लाता है।

चित्रकारों ने समकालीन दुनिया में भय व दहशत पैदा करने वाली मुनाफे पर आधारित व्यवस्था और शोषण व उत्पीड़न पर टिके ढ़ांचे को जो मेहनतकश लोगों में दहशत पैदा करने वाला प्रधान तत्व है उसकी ओर लगभग नजर ही नहीं डाली है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पूर्वी यूरोपीय देशों के कलाकारों में कम्युनिज्मविरोध का एक आग्रह दिखता है। उनका यह वैचारिक अंधापन समकालीन यथार्थ की ओर दृष्टि जाने में सबसे बड़ी बाधा बन जाता है।

जारी …….

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